Uttarakhand (ukpsc) and ARO/RO Essay writing (Main Exam) 2017
By Vikash Suyal | General knowledge | May 01, 2017
Vyas IAS Academy Dehradun preparing for Uttarakhand (ukpsc) and ARO/RO Essay writing (Main Exam) 2017
भारतीय कृषि की विशेषता त्रासदी : सूखा
दूर तक फैले खेत,
जो दिखाई पड़ते है अब रेत ,
बीच में खड़ा एक अधीर किसान ,
जिसके बैचेन है कान ,
सुनने को बादलों की तान।
लेकिन न टपका फिर भी एक कतरा पानी का,
चारों तरफ छाया हुआ है अजीब सन्नाटा।
स्पष्ट है कि सूखा एक संकटापन्न स्थिति है। आम बोलचाल की भाषा में सूखे का अर्थ पानी की कमी है। लम्बे समय तक वर्षा की कमी के कारण जल की उपलब्धता में कमी हो जाती है जिसे एक आपदा के रूप में जाना जाता है। आमतौर पर इसके लिये अकाल व दुर्भिक्ष आदि शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची के रूप में किया जाता है जबकि दोनों में अन्तर है अकाल व दुर्भिक्ष सूखे के कारण उत्पन्न हुई स्थिति है।
अगर सूखे के प्रकारों की बात की जाय तो भारतीय मौसम विज्ञान एवं भारतीय कृषि विभाग ने इसके निम्न प्रकार बताये है।
भारतीय कृषि विभाग
मौसमी सूखा जलीय वैज्ञानिक कृषिया मृदा
औसत से कम जल संग्रहण क्षेत्रों का सूखना मिट्टी में अपर्याप्त नमी अनियमित वर्षा
भारतीय मौसम विज्ञान
सामान्य माध्यम चरम
(औसत से 25 % कम) (औसत से 50 % कम) (औसत से 75% कम)
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में माध्यम सूखे का भाग 35 % प्रतिशत तथा चरम सूखे का भाग 33 % है। भारत में सूखे मुख्य तीन क्षेत्र है। शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्र के अन्तर्गत मध्यप्रदेश का उत्तर पश्चिमी उत्तरप्रदेश का दक्षिण पश्चिमी , गुजरात ,राजस्थान ,पंजाब हरियाणा का लगभग 6 लाख कि० मी०2 क्षेत्र आता है जिसे सूखा ग्रस्त त्रिकोण क्षेत्र कहा जाता है। पू० घाट का पश्चिमी ढाल ,पश्चिमी घाट का पूर्वी ढलान ,गिरनार का उत्तरी भाग राजकोट दृष्टि छाया प्रदेश के रूप में जाना जाता है। दक्षिण में तमिलनाडु का तृण वैली क्षेत्र ,पूर्व में बंगाल का अरुलिया सूखे के अन्य क्षेत्र है।
सूखे के कारणों की बात करे तो पहले प्राकृतिक कारण में मुख्य कारण है अनियमित मानसून का आना जिस कारण किसान बारिश के इंतजार में गर्मियों की फसल नहीं लगाते। वर्षा कभी कम या कभी ज्यादा इसका एक कारण है। फसल चक्र का सही न होना मिट्टी में नमी को कम करता है। जिसे मृदा धीरे - धीरे जल धारण क्षमता खो देती है। जलवायु परिवर्तन सूखे का एक बहुत बड़ा कारक है। और कुछ स्थान अपनी भौगोलिक अवस्थिति के कारण वर्षा न होने से सूखाग्रस्त क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किये गए है।
ऐसा बिलकुल नहीं है की सूखा केवल प्राकृतिक कारणों से ही उत्पन्न होता है। बल्कि इसके पीछे मानवीय गतिविधियाँ भी जिम्मेदार है। जिसमे मुख्य है भूजल का आध्यात्मिक दोहन है। अवैज्ञानिक फसल चक्र व पशुचारण के कारण मृदा की नमी में कमी होती जाती है। जिस कारण भूजल में कमी आती है। प्राचीन काल में जल संचय के तरीके और स्रोतों के द्धारा जल को संचित किया जाता लावड़ी ,कुंये , चोखर आदि वर्तमान में विलुप्त है जो है वह भी सूख चुके है। वनो का कटान सूखे का जैसा आपदा को आमंत्रित करता है। प्राचीन काल में कृषि एक संस्कृति हुआ करती थी। आज कृषि आर्थिक लाभ कमाने का एक साधन बन चुकी है जिस कारण किसान वही फसल उगना चाहता है। जिसमें अत्यधिक मुनाफा हो गन्ना जो कि 180 लाख लीटर पानी / हेक्टेयर में पानी की खपत करता है। धान कपास अत्यधिक जलशोषी फसल है मुनाफा होने के कारण इनको उगाया जाता है।
मानवीय कारणों में सबसे मुख्य है उध्योग , उध्योग हमें नौकरी देते है लेकिन बहुत से उध्योग है जो न सिर्फ पानी का व्यय करते है बल्कि पानी चूस लेते है। जिसमें बोतल बंद व पानी व कोल्ड्रिंक के उध्योग है। यह प्लांट अगर कही लगाये जाते है तो कुछ समय में वहाँ का वाटर लेबल कम कर देता है। जैसे उत्तराखण्ड के पंतनगर सिडकुल में लगाया कोक प्लांट जहाँ कुछ वर्ष पहले पानी का स्तर 12 फीट था वही अब वह बढ़ कर 36 फीट हो गया है। पानी एक बार बोतलों में भरकर बहार चला गया वो हमेशा के लिये चला गया और अपने पीछे छोड़ देता है जल का घटा स्तर।
लंबी अवधि तक किसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में कमी से स्थानीय अर्थव्यवस्था में प्रभाव तो पड़ता ही है साथ ही बारिश की कमी से फसल की हानि से दीर्घकालीन सूखा हमारे सामने आता है। जिसमे अकाल की स्थिति उत्पन्न होती है। जो आर्थिक औद्योगिक ,सामाजिक क्षेत्र को कमजोर करता है। यह विकास की प्रक्रिया को रोकता है। असामाजिक व्यवहार को जन्म देता है पलायन को बढ़ावा देता है मनोबल को कम करता है और शुरू होती है किसान आत्महत्या जैसी गम्भीर स्थिति -
बूंद बूंद को तरसे जीवन,
बूंद से तड़पा हर किसान,
बूंद मिली तो हो वरदान,
बूंद से तरसा है किसान।
जहाँ तक सूखे के प्रबन्ध की बात है इसके लिये सरकारी व गैर सरकारी प्रयास भी होते रहे है। जल संसाधनों का संरक्षण व मृदा आद्रता का संरक्षण ,सिंचाई सुविधा का प्रसार ,शस्य प्रतिरूप में परिवर्तन ,चरागाह विकास ,वृक्षारोपण ,व कृषि अनुषंगी क्रियाओं जैसे पशुपालन ,बागवानी आदि को प्राथमिकता दी जा रही है। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में सूखा रहित कार्यक्रम में लघु कालीन जैसे खाद्य पदार्थ ,पेयजल आपूर्ति ,ऋण की व्यवस्था करना तथा दीर्घ कालीन के अन्तर्गत मनरेगा व खाद्य सुरक्षा की सहायता व रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है। जिस हेतु सातवीं पंचवर्षीय योजना में कुछ नीतियों चलायी गयी। जिसमें सूखाग्रस्त क्षेत्रों की पहचान तदनुरूप फसल चक्र का निर्धारण करना , गहरी जुताई व जल को कम खर्च करना मुख्य है। " टपक सिंचाई " व फर्टी ग्रेशन कृषि के प्रति जागरूक किया गया। प्रादेशिक विकास कार्यक्रम के तहत 1973 में (DPAP) शुरू किया। (1977–78) में मरुस्थलीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम (DDP ) चलाया गया। सूखे से सम्बंधित पूर्व चेतावनी के लिये 1999 से पैरामीट्रिक तथा विधुत प्रतिगामी मॉडल तथा गतिशील अंतरण मॉडलों के आधार पर काफी सटीक भविष्यवाणी की जा रही है दीर्घ सूखा अनुमानित किया जाता है तथा "इनसेट डाटा " के आधार पर 24 - 72 घण्टों का पूर्वानुमान जारी होता है।
देश के विशाल स्वरूप और मौसमी बरसात में विभिन्न कारणों से हो रही विभिन्नता सूखे का कारण है सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पिछले कुछ वर्षों में सिंचाई सुविधा में लगातार बढ़ोतरी हुयी है। लेकिन लगातार परिवर्तन जलवायु , प्राकृतिक कृत्रिम ,मानवीय कारणों से हमें सूखे की समस्या से लड़ने के लिये सदैव तैयार रहना पड़ेगा जिसमें सरकार के साथ - साथ हम सबको सूखे के कारणों का पता लगाकर इसकी रोकथाम व न्यूनीकरण की योजनाओं को लागु करना पड़ेगा ताकि सूखे जैसी आपदा से मुक्त रहे।