{उत्तराखंड} : संरक्षित प्राचीन स्मारक और धरोहर [Uttarkhand GK In Hindi]
By Kamakshi Sharma | Uttarakhand | Oct 09, 2018
उत्तराखण्ड राज्य गठन बाद , प्रदेश की प्राचीन धरोहरों के ओर बेहतर रख-रखाव के उद्देश्य से आगरा मण्डल को विभाजित किया गया | दिनांक 16.06.2003 को देहरादून मण्डल की स्थापना हुई। देहरादून मण्डल के अंदर 42 राष्ट्रीय महत्व के संरक्षित स्मारक है , जो उत्तराखण्ड राज्य के 10 जनपदों (देहरादून, उत्तरकाशी, चमोली, हरिद्वार, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर) में स्थित हैं। इनमें मन्दिर, किला, पुरास्थल, शैलाश्रय, जल संरचनाएं, गुफा एवं कब्रिस्तान आदि भी सम्मिलित हैं।
देहरादून मण्डल के अंदर 42 राष्ट्रीय सुरक्षित धरोहर आते है, अर्थात देहरादून मण्डल को 42 राष्ट्रीय सुरक्षित धरोहरों को संरक्षित करने का दायित्व दिया गया है।देहरादून मण्डल का विभाजन 4 उप-मण्डलों में किया गया है –
कार्यक्षेत्र:- जनपद देहरादून और उत्तरकाशी जनपद।
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद देहरादून:- 06 स्मारक एवं पुरा स्थल
जनपद उत्तरकाशी:- 01 पुरा स्थल
कार्यक्षेत्र:- चमोली और हरिद्वार जनपद
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद चमोली:- 06 स्मारक
जनपद हरिद्वार:- 01 स्मारक
कार्यक्षेत्र:- अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ़ जनपद।
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद अल्मोड़ा:- 18 स्मारक
जनपद बागेश्वर:- 02 स्मारक
जनपद चम्पावत:- 03 स्मारक
जनपद पिथौरागढ:- 02 स्मारक
कार्यक्षेत्र:- नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जनपद
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद नैनीताल:- 02 स्मारक
जनपद ऊधमसिंह नगर:- 01 पुरास्थल
जागनाथ मन्दिर जागेश्वर मन्दिर समूह में स्थित है इसे जागनाथ मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। जागेश्वर का यह मन्दिर भी उसी समय का बना हुआ है। जब मध्य हिमालय में कत्यूरी शासन के दौरान काफी बड़े स्तर पर मन्दिरों का निर्माण का कार्य किया गया,इस मन्दिर को स्थानीय भाषा में जागनाथ (शिव को योगेश्वर) भी कहा जाता है। इसके पूरब में त्रिरथ अन्तराल एवं ढालदार शिखर है जिसके आगे पिरामिडनुमा मंडप है। मन्दिर की पुरानी छत के टूटने के बाद उसको धातु की छत से बदल दिया गया। निर्माण विधि को देखते हुए यह मन्दिर आठवीं शताब्दी का प्रतीत होता है।
यह एक प्रमुख शिव मन्दिर है।यह मन्दिर भी जागेश्वर मन्दिर समूह का एक मन्दिर है और पूर्वाभिमुखी यह मन्दिर जागनाथ मन्दिर के सामने की तरफ लैटिन शिखर शैली में निर्मित त्रिरथ जिसमें, अंतराल व स्तंभ का मंडप युक्त है। मंडप की पिरामिडनुमा छत प्राचीन समय में पत्थरों की बनी हुई थी, जिसको आज के समय में धातु की चादर से बदल दिया गया।
यह देवालय है जो कि चण्डिका मन्दिर के समीप एक ऊंचे स्थान पर निर्मित है। हालांकि यह मन्दिर आकार में छोटा है परन्तु वास्तुकला में यह मृत्यंजय मन्दिर, जागेश्वर के अनुरूप है। इसके शिखर को आमलकशिला के ऊपर आकाश लिंग से लगाया गया है।
भगवान शिव समर्पित यह मन्दिर जागेश्वर मन्दिर समूह के निकट और प्रमुख जागेश्वर मन्दिर से पहले स्थित है। बनावट में यह मन्दिर फांसना शिखर शैली का है, लेकिन इस शैली से भिन्न इसके शिखर 3 या 4 बढ़ते क्रम में उठे हुये हैं जिनमें प्रत्येक के ऊपर एक कुंभ मोल्डिंग की गयी है। साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि प्राचीन मन्दिर में एक गर्भगृह, जिसके बाद मंडप था, लेकिन वर्तमान में मंडप पूरी तरह विलुप्त है। यह मन्दिर 9-10वीं शताब्दी का है।
कुबेर मन्दिर के नीचे स्थित बलभी शिखर का यह मन्दिर देवी चण्डिका को समर्पित है। सामान्यतः इस शैली में निर्मित मंदिर देवी को समर्पित होते हैं। लम्बवत् योजना में यह मन्दिर वरण्डिका भाग तक आयातकार है जबकि शिखर भाग गजपृष्ठाकार है जो कि देवी को समर्पित मन्दिरों के वास्तु की एक प्रमुख विशेषता है। कालक्रम के अनुसार इसे आठवीं- नौवीं शताब्दी ई0 में रखा जा सकता है।
जागेश्वर मन्दिर परिसर में सूर्य मन्दिर के उत्तर में स्थित नवगृह मन्दिर किसी भी प्रकार की वास्तु शैली से अछूता है। मन्दिर के सरदल पर नव ग्रह के उकेरा हुआ दर्शाया गया है। सूर्य को उनके लम्बे जूतों में दोनों हाथ में पूरा खिला हुआ कमल का फूल पकड़े हुये दर्शाया गया है, जबकि राहु को एक मुण्ड एवं केतु को साँप की छतरी के रूप में प्रदर्शित किया गया है। शेष ग्रहों ने अपने उल्टे हाथ में पानी का कलश और उपर की तरफ उठे हुये सीधे हाथ में माला धारण किए हैं।
जागनाथ मन्दिर के ठीक पीछे मन्दिर परिसर के भीतर दो फांसना शिखर शैली के मन्दिर हैं। प्लान एवं ऐलीवेशन में चौरस दोनों मन्दिरों के शिखर ढालदार, उभरे-धंसे हुये आकार जिसको पीड़ा कहते हैं, से निर्मित है, जिसके कारण इसे पीड़ा देवल नाम से भी पुकारा जाता है। मन्दिर में गर्भगृह एवं उससे पहले एक कपीली है।
यह जागेश्वर मंदिर समूह के परिसर में वलभी शिखर श्रेणी का मंदिर देवी नंदा देवी को समर्पित है। स्थानीय लोग इसे नौ दुर्गा मंदिर कहते हैं। इसके अलावा इस समूह में तीन और ऐसे ही मंदिर हैं जो कालिका देवी, पुष्टि देवी और चंडिका देवी मंदिर हैं। यह तीनों भी वलभी शिखर श्रेणी के मन्दिर हैं।
यह एक सामान्य वास्तु शैली में निर्मित छोटा रेखी शिखर मंदिर है। भगवान सूर्य को समर्पित मंदिर में रथ गर्भ गृह तथा बाहर निकला हुआ आँगन हैं। गर्भ गृह में किसी देवता की मूर्ति नही है तथापि सरदल पर सूर्य का रथ सहित मूर्ति अंकित हैं जिससे यह प्रतीत होता हैं की यह मंदिर सूर्य उपासना में प्रयुक्त होता था। यह मंदिर 14वीं शताब्दी ई0 का प्रतीत होता हैं।
यह मंदिर बड़ादित्य अथवा सूर्य का बड़ा मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे ऊँचे मंदिरों में हैं। मुख्य मंदिर के अलावा पहाड़ की ढलान पर चबूतरे पर अन्य लघु देवालए भी हैं जिन पर पूर्व दिशा में स्थित सीढि़यों से प्रवेश किया जाता है। पूर्वाभिमुखी मुख्य मन्दिर में त्रि-रथ गर्भगृह है। बाद में इसमें एक मंडप से जोड़ा गया है। यहाँ का काष्ठ निर्मित अलंकृत दरवाजा वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में प्रदर्शित है। स्थल से प्राप्त पकी ईंटों के खण्डों की प्राप्ति से प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह मन्दिर ईंटों और लकड़ी से बना था जिसे कालांतर में (12वीं-13वीं शताब्दी) में वर्तमान के पत्थरों से निर्मित किया गया। यहां उपलब्ध अन्य लघु देवालय इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कटारमल में इसके बाद भी निर्माण कार्य किये गये। गर्भगृह में अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की पत्थर की मूर्तियां हैं। सूर्य की पत्थर की मूर्ति के अलावा लकड़ी की भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था की मूर्ति हैं जिससे अनुमान लगता है कि वर्तमान मन्दिर से पहले भी यहां पूजा होती थी। पूर्वाभिमुखी मुख्य मन्दिर में त्रि-रथ गर्भगृह है। बाद में इसमें एक मंडप जोड़ा गया है।
देहरादून मण्डल के अंदर 42 राष्ट्रीय सुरक्षित धरोहर आते है, अर्थात देहरादून मण्डल को 42 राष्ट्रीय सुरक्षित धरोहरों को संरक्षित करने का दायित्व दिया गया है।देहरादून मण्डल का विभाजन 4 उप-मण्डलों में किया गया है –
देहरादून उप मण्डल
कार्यक्षेत्र:- जनपद देहरादून और उत्तरकाशी जनपद।
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद देहरादून:- 06 स्मारक एवं पुरा स्थल
जनपद उत्तरकाशी:- 01 पुरा स्थल
गोपेश्वर उप मण्डल
कार्यक्षेत्र:- चमोली और हरिद्वार जनपद
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद चमोली:- 06 स्मारक
जनपद हरिद्वार:- 01 स्मारक
अल्मोड़ा उप मण्डल
कार्यक्षेत्र:- अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ़ जनपद।
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद अल्मोड़ा:- 18 स्मारक
जनपद बागेश्वर:- 02 स्मारक
जनपद चम्पावत:- 03 स्मारक
जनपद पिथौरागढ:- 02 स्मारक
काशीपुर उप मण्डल
कार्यक्षेत्र:- नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जनपद
स्मारकों/स्थलों की संख्या
जनपद नैनीताल:- 02 स्मारक
जनपद ऊधमसिंह नगर:- 01 पुरास्थल
अल्मोड़ा जनपद में स्थित संरक्षित प्राचीन स्मारक
जागनाथ मन्दिर (जागेश्वर), जनपद-अल्मोड़ा
जागनाथ मन्दिर जागेश्वर मन्दिर समूह में स्थित है इसे जागनाथ मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। जागेश्वर का यह मन्दिर भी उसी समय का बना हुआ है। जब मध्य हिमालय में कत्यूरी शासन के दौरान काफी बड़े स्तर पर मन्दिरों का निर्माण का कार्य किया गया,इस मन्दिर को स्थानीय भाषा में जागनाथ (शिव को योगेश्वर) भी कहा जाता है। इसके पूरब में त्रिरथ अन्तराल एवं ढालदार शिखर है जिसके आगे पिरामिडनुमा मंडप है। मन्दिर की पुरानी छत के टूटने के बाद उसको धातु की छत से बदल दिया गया। निर्माण विधि को देखते हुए यह मन्दिर आठवीं शताब्दी का प्रतीत होता है।
मृत्युंजय मन्दिर जागेश्वर जनपद-अल्मोड़ा
यह एक प्रमुख शिव मन्दिर है।यह मन्दिर भी जागेश्वर मन्दिर समूह का एक मन्दिर है और पूर्वाभिमुखी यह मन्दिर जागनाथ मन्दिर के सामने की तरफ लैटिन शिखर शैली में निर्मित त्रिरथ जिसमें, अंतराल व स्तंभ का मंडप युक्त है। मंडप की पिरामिडनुमा छत प्राचीन समय में पत्थरों की बनी हुई थी, जिसको आज के समय में धातु की चादर से बदल दिया गया।
कुबेर मन्दिर, जागेश्वर जनपद-अल्मोडा
यह देवालय है जो कि चण्डिका मन्दिर के समीप एक ऊंचे स्थान पर निर्मित है। हालांकि यह मन्दिर आकार में छोटा है परन्तु वास्तुकला में यह मृत्यंजय मन्दिर, जागेश्वर के अनुरूप है। इसके शिखर को आमलकशिला के ऊपर आकाश लिंग से लगाया गया है।
दण्डेश्वर मन्दिर- जागेश्वर, जनपद-अल्मोड़ा
भगवान शिव समर्पित यह मन्दिर जागेश्वर मन्दिर समूह के निकट और प्रमुख जागेश्वर मन्दिर से पहले स्थित है। बनावट में यह मन्दिर फांसना शिखर शैली का है, लेकिन इस शैली से भिन्न इसके शिखर 3 या 4 बढ़ते क्रम में उठे हुये हैं जिनमें प्रत्येक के ऊपर एक कुंभ मोल्डिंग की गयी है। साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि प्राचीन मन्दिर में एक गर्भगृह, जिसके बाद मंडप था, लेकिन वर्तमान में मंडप पूरी तरह विलुप्त है। यह मन्दिर 9-10वीं शताब्दी का है।
चण्डिका मन्दिर, जागेश्वर, जनपद-अल्मोड़ा
कुबेर मन्दिर के नीचे स्थित बलभी शिखर का यह मन्दिर देवी चण्डिका को समर्पित है। सामान्यतः इस शैली में निर्मित मंदिर देवी को समर्पित होते हैं। लम्बवत् योजना में यह मन्दिर वरण्डिका भाग तक आयातकार है जबकि शिखर भाग गजपृष्ठाकार है जो कि देवी को समर्पित मन्दिरों के वास्तु की एक प्रमुख विशेषता है। कालक्रम के अनुसार इसे आठवीं- नौवीं शताब्दी ई0 में रखा जा सकता है।
नवगृह मंदिर, जागेश्वर, जनपद-अल्मोड़ा
जागेश्वर मन्दिर परिसर में सूर्य मन्दिर के उत्तर में स्थित नवगृह मन्दिर किसी भी प्रकार की वास्तु शैली से अछूता है। मन्दिर के सरदल पर नव ग्रह के उकेरा हुआ दर्शाया गया है। सूर्य को उनके लम्बे जूतों में दोनों हाथ में पूरा खिला हुआ कमल का फूल पकड़े हुये दर्शाया गया है, जबकि राहु को एक मुण्ड एवं केतु को साँप की छतरी के रूप में प्रदर्शित किया गया है। शेष ग्रहों ने अपने उल्टे हाथ में पानी का कलश और उपर की तरफ उठे हुये सीधे हाथ में माला धारण किए हैं।
पिरामिडाकार मन्दिर, जागेश्वर, जनपद-अल्मोड़ा
जागनाथ मन्दिर के ठीक पीछे मन्दिर परिसर के भीतर दो फांसना शिखर शैली के मन्दिर हैं। प्लान एवं ऐलीवेशन में चौरस दोनों मन्दिरों के शिखर ढालदार, उभरे-धंसे हुये आकार जिसको पीड़ा कहते हैं, से निर्मित है, जिसके कारण इसे पीड़ा देवल नाम से भी पुकारा जाता है। मन्दिर में गर्भगृह एवं उससे पहले एक कपीली है।
नंदा देवी, जागेश्वर, जनपद-अल्मोड़ा
यह जागेश्वर मंदिर समूह के परिसर में वलभी शिखर श्रेणी का मंदिर देवी नंदा देवी को समर्पित है। स्थानीय लोग इसे नौ दुर्गा मंदिर कहते हैं। इसके अलावा इस समूह में तीन और ऐसे ही मंदिर हैं जो कालिका देवी, पुष्टि देवी और चंडिका देवी मंदिर हैं। यह तीनों भी वलभी शिखर श्रेणी के मन्दिर हैं।
सूर्य समर्पित मंदिर, जागेश्वर, जनपद-अल्मोड़ा
यह एक सामान्य वास्तु शैली में निर्मित छोटा रेखी शिखर मंदिर है। भगवान सूर्य को समर्पित मंदिर में रथ गर्भ गृह तथा बाहर निकला हुआ आँगन हैं। गर्भ गृह में किसी देवता की मूर्ति नही है तथापि सरदल पर सूर्य का रथ सहित मूर्ति अंकित हैं जिससे यह प्रतीत होता हैं की यह मंदिर सूर्य उपासना में प्रयुक्त होता था। यह मंदिर 14वीं शताब्दी ई0 का प्रतीत होता हैं।
सूर्य मंदिर, कटारमल, जनपद-अल्मोड़ा
यह मंदिर बड़ादित्य अथवा सूर्य का बड़ा मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे ऊँचे मंदिरों में हैं। मुख्य मंदिर के अलावा पहाड़ की ढलान पर चबूतरे पर अन्य लघु देवालए भी हैं जिन पर पूर्व दिशा में स्थित सीढि़यों से प्रवेश किया जाता है। पूर्वाभिमुखी मुख्य मन्दिर में त्रि-रथ गर्भगृह है। बाद में इसमें एक मंडप से जोड़ा गया है। यहाँ का काष्ठ निर्मित अलंकृत दरवाजा वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में प्रदर्शित है। स्थल से प्राप्त पकी ईंटों के खण्डों की प्राप्ति से प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह मन्दिर ईंटों और लकड़ी से बना था जिसे कालांतर में (12वीं-13वीं शताब्दी) में वर्तमान के पत्थरों से निर्मित किया गया। यहां उपलब्ध अन्य लघु देवालय इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कटारमल में इसके बाद भी निर्माण कार्य किये गये। गर्भगृह में अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की पत्थर की मूर्तियां हैं। सूर्य की पत्थर की मूर्ति के अलावा लकड़ी की भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था की मूर्ति हैं जिससे अनुमान लगता है कि वर्तमान मन्दिर से पहले भी यहां पूजा होती थी। पूर्वाभिमुखी मुख्य मन्दिर में त्रि-रथ गर्भगृह है। बाद में इसमें एक मंडप जोड़ा गया है।